Natasha

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राजा की रानी

सिवाय इसके, बिहार के गाँव में किसी तरह का आकर्षण भी ढूँढे नहीं मिलता था। उसके पहले मैं बंगाल के अनेक गाँवों में विचरण कर चुका हूँ, किन्तु, उनके साथ इनकी कोई तुलना ही नहीं हो सकती। नर-नारी, पेड़-पत्ते, जलवायु- कोई भी चीज़ अपनी-सी नहीं मालूम होती थीं। सारा मन सुबह से लेकर रात्रिपर्यन्त केवल 'भागूँ-भागूँ' किया करता था।

संध्याक के समय मुहल्ले से उस तरह झाँझ-करताल के साथ कीर्तन का सुर कानों में नहीं आता। देव-मन्दिरों में आरती के काँसे के घण्टे आदि भी उस तरह का गम्भीर मधुर शब्द नहीं करते। इस देश की स्त्रियाँ शंखों को भी वैसी मीठी तरह से बजाना नहीं जानतीं, तब यहाँ मनुष्य किस सुख के लिए रहते हैं? और मन ही मन ऐसा लगने लगा कि यदि इन सब गाँवों में मैं न आ पड़ा होता तो अपने गाँवों का मूल्य किसी दिन भी इस तरह न जान पाता। हमारे यहाँ के पानी में काई भरी रहती है, हवा में मलेरिया है, प्राय: सभी मनुष्यों के पेट में पिलही बढ़ी हुई है, घर-घर मुकदमे-मामले हुआ करते हैं, महल्ले महल्ले में दलबन्दियाँ हैं; सो सब रहने दो, परन्तु फिर भी उसके बीच भी कितना रस, कितनी तृप्ति थी। इस समय मानो, उसके विषय में कुछ न जानते हुए भी मैं सब कुछ जानने लगा।

दूसरे दिन तम्बू उखाड़ कर यात्रा शुरू कर दी गयी; और साधु बाबा यथा शक्ति भारद्वाज मुनि के आश्रम की ओर दलबल-सहित अग्रसर होने लगे। किन्तु चाहे रास्ता सीधा पड़ेगा इस खयाल से हो, अथवा मुनि ने मेरे मन की बात जान ली- इस कारण से हो, पटना के दस कोस के भीतर उन्होंने और फिर कहीं तम्बू नहीं गाड़ा। मन में एक वासना थी। खैर उसे इस समय रहने दो। पाप-ताप मैंने बहुत से किये हैं; साधु-संग भी कुछ दिन करके पवित्र हो लूँ।

एक दिन संध्यात के कुछ पहले जिस जगह हमारा डेरा पड़ा, उसका नाम था छोटी बगिया। आरा स्टेशन से यह स्थान आठ कोस दूर है। इस गाँव के एक प्रसिद्ध बंगाली सज्जन से मेरा परिचय हो गया था। उनकी सदाशयता का यहाँ कुछ वर्णन करूँगा। उनके पैतृक नाम को गुप्त रखकर 'राम बाबू' कहना ही अच्छा है, क्योंकि अब तक वे जीवित हैं। और बाद में, अन्यत्र यद्यपि उनसे मेरा साक्षात्कार हुआ था, फिर भी वे मुझे पहिचान नहीं सके थे। इसमें कुछ अचरज भी नहीं है। परन्तु उनका स्वभाव मैं जानता हूँ। गुप्त रूप से उन्होंने जो सत्कार्य किये हैं उनका प्रकाश्य रूप में उल्लेख किये जाने पर वे विनय से संकुचित हो उठेंगे, यह मैं अच्छी तरह से जानता हूँ। इसलिए उनका नाम है 'राम बाबू'। किस तरह राम बाबू उस गाँव में आए थे और किस तरह उन्होंने जमा-जमीन संग्रह करके खेती-बारी की थी, सो मुझे नहीं मालूम। इतना ही मैं जानता हूँ कि उन्होंने दूसरी दफा विवाह किया था और तीन-चार पुत्र-कन्याओं के साथ वे वहाँ सुख से वास करते थे।

सुबह के समय सुना गया कि इन्हीं छोटी बगिया और बड़ी बगिया नामक गाँवों में उस समय शीतला ने महामारी के रूप में दर्शन दिए हैं। देखा गया है कि गाँव के दु:समय में ही साधु सन्यासियों की सेवा विशेष सन्तोषजनक होती है। इसीलिए साधु बाबा ने अविचलित चित्त से वहाँ पर अवस्थान करने का संकल्प कर लिया।

अच्छी बात है। सन्यासी जीवन के सम्बन्ध में यहाँ पर मैं एक बात कह देना चाहता हूँ। जीवन में इनमें से मैंने अनेकों को देखा है। चारेक दफा मैं उनके साथ ऐसे ही घनिष्ठ भाव से घुल-मिलकर भी रहा हूँ। दोष जो उनमें हैं सो हैं ही, मैं तो गुणों की बात ही कहूँगा। 'केवल पेट के लिए साधुजी' तो आप में से अनेक जानते होंगे, परन्तु इन लोगों में भी ये दो दोष मेरी नजर नहीं आए, और मेरी नजर भी कुछ बहुत स्थूल नहीं है। स्त्रियों के सम्बन्ध में इन लोगों का संयम कहो या उत्साह की स्वल्पता कहो- खूब अधिक है, और प्राणों का भय भी इन लोगों में बिल्कुिल ही कम होता है। 'यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्' तो है, परन्तु क्या करने से 'बहुदिनं जीवेत्' यह खयाल नहीं होता। हमारे साधु बाबा भी ऐसे ही थे! पहली वस्तु के याने 'सुख' के लिए दूसरी अर्थात् 'जीवेत्' को उन्होंने तुच्छ कर दिया था!”

थोड़ी-सी धूनी की राख और दो बूँद कमण्डलु के जल के बदले में जो सब वस्तुएँ दनादन डेरे में आने लगीं वह, क्या तो सन्यासी और क्या गृहस्थ, किसी के लिए विरक्ति का कारण नहीं हो सकतीं!

राम बाबू स्त्री सहित रोते हुए आए। चार रोज के बुखार के बाद आज सुबह बड़े लड़के को शीतला दिखाई पड़ी हैं और छोटा बच्चा कल रात से ज्वर में बेहोश पड़ा है। यह जानकर कि वे बंगाली हैं मैंने स्वयं उनके निकट जाकर उनसे परिचय किया।

इसके बाद कथा के सिलसिले में मैं महीने-भर का विच्छेद कर देना चाहता हूँ। क्योंकि किस तरह यह परिचय घनिष्ठ होता गया, किस तरह दोनों बच्चे चंगे हुए- इसकी बहुत लम्बी कथा है। कहते-कहते मेरा भी धीरज छूट जायेगा, फिर पाठकों की बात तो दूर रही। फिर भी, बीच की एक बात कहे देता हूँ। करीब पन्द्रह दिन बाद, जब कि रोग का प्रकोप बहुत बढ़ा-चढ़ा था, साधुजी ने अपना डेरा उठाने का प्रस्ताव किया। राम बाबू की स्त्री रोकर बोल उठीं, “सन्यासी भइया, तुम तो सचमुच के सन्यासी नहीं हो- तुम्हारे शरीर में तो दया-माया है। नवीन और जीवन को यदि तुम छोड़कर चले आओगे, तो वे कभी नहीं बचेंगे। कहाँ, जाओ देखूँ, कैसे जाते हो?” इतना कहकर उसने मेरे पैर पकड़ लिये। मेरी ऑंखों से भी ऑंसू निकल पड़े। राम बाबू भी स्त्री की प्रार्थना में योग देकर अनुनय-विनय करने लगे। इसलिए मैं नहीं जा सका। साधु बाबा से मैं बोला; “प्रभो, आप अग्रसर हूजिए, मैं रास्ते के बीच में, नहीं तो प्रयाग में पहुँचकर, आपकी पदधूलि अवश्य ही माथे चढ़ा सकूँगा, इसमें कोई सन्देह है।” प्रभु कुछ क्षुण्ण हुए। अन्त में बार-बार अनुरोध करके, अकारण कहीं विलम्ब न लगा देना, इस सम्बन्ध में बार-बार सावधान करके, वे सदल-बल यात्रा कर गये। मैं राम बाबू के घर में ही रह गया। इन थोड़े से दिनों के बीच में ही मैं इस तरह प्रभु का सबसे अधिक स्नेह-पात्र हो गया था कि यदि और टिका रहता तो उनकी सन्यास-लीला के अवसान पर, उत्तराधिकार-सूत्र से मैं उस टट्टू और दोनों ऊँटों पर दखल प्राप्त कर सकता, इसमें कोई सन्देह नहीं रह गया था खैर जाने दो- हाथ की लक्ष्मी पैर से ठेलकर, गयी बात को लेकर, परिताप करने में अब कोई लाभ नहीं है।

दोनों लड़के चंगे हो गये। महामारी इस दफे सचमुच ही महामारी के रूप में दिखाई दी। वह कैसा व्यापार था जिसने अपनी ऑंखों नहीं देखा वह किसी का लिखा हुआ पढ़कर, कहानी सुनाकर या कल्पना करके हृदयंगम कर सके यह असम्भव है। अतएव इस असम्भव कार्य को सम्भव करने का प्रयास मैं नहीं करूँगा। लोगों ने भागना शुरू किया; इसमें और कोई विवेक विचार नहीं रहा! जिस घर में मनुष्य का चिह्न दिखाई देता था उसमें झाँककर देखने से नजर आता था कि केवल माँ अपनी पीड़ित सन्तान को आगे लिये बैठी है।

राम बाबू ने भी अपनी घरू बैलगाड़ी में माल-असबाब लाद दिया। वे तो कई दिन पहले ही ऐसा करना चाहते थे, किन्तु, बाध्यड़ होकर ही न कर सके। पाँच-छ: दिन पहले से ही मेरी सारी देह एक ऐसे बुरे आलस्य से मर गयी थी कि कुछ भी भला नहीं लगता था। मालूम होता था कि रात्रि-जागरण और परिश्रम के कारण ही ऐसा हो रहा है। उस दिन सुबह से ही सिर दुखने लगा। बिल्कुरल अरुचि होते हुए भी दोपहर के समय जो कुछ खाया शाम के वक्त उसे कै कर दिया। रात के 9-10 बजे मालूम हुआ कि बुखार चढ़ आया है। उस दिन सारी रात, उन लोगों का उद्योग आयोजन चल रहा था, सभी जाग रहे थे। बहुत रात बीते राम बाबू की स्त्री बाहर से मेरे कमरे के भीतर झाँककर बोली, “सन्यासी भइया, तुम क्या हमारे साथ ही आरा तक नहीं चलोगे?”

मैं बोला, “जरूर चलूँगा। किन्तु तुम्हारी गाड़ी में मुझे थोड़ी-सी जगह देनी होगी।”

बहिन ने उत्सुक होकर प्रश्न किया, “सो कैसे सन्यासी भइया? गाड़ियाँ तो दो से अधिक नहीं मिल सकीं। उनमें तो हम लोगों भर के लिए भी जगह नहीं है।”

मैंने कहा, “मुझमें तो चलने की ताकत नहीं है बहिन, सुबह से ही खूब बुखार चढ़ा है।”

“बुखार! कहते क्या हो?” इतना कहकर उत्तर की भी अपेक्षा न करके मेरी नूतन बहिन अपना मुँह श्याम करके चली गयी।

कितनी देर तक मैं सोता रहा, सो नहीं कह सकता। जागकर देखा तो दिन चढ़ आया है। मकान के भीतर के सभी कमरों में ताला लगा हुआ है, मनुष्य प्राणी का नाम भी नहीं है।

बाहर के जिस कमरे में मैं था उसके सामने से ही इस गाँव का कच्चा रास्ता आरा स्टेशन तक गया है। इस रास्ते पर से प्रतिदिन कम से कम 5-6 बैलगाड़ियाँ, मृत्यु-भीत नर-नारियों का माल-असबाब लादकर, स्टेशन जाया करती थीं। दिन-भर अनेक प्रयत्न करने के बाद में शाम को इनमें से एक में स्थान पाकर जा बैठा। जिन वृद्ध बिहारी सज्जन ने दया करके मुझे अपने साथ ले लिया था उन्होंने बड़े तड़के ही मुझे स्टेशन के पास एक वृक्ष के नीचे उतार दिया। उस समय बैठने का भी मुझमें सामर्थ्य नहीं था। वहीं मैं लेट गया। पास में ही एक टीन का परित्यक्त शेड था। पहले वह मुसाफिरखाने के काम में आता था; किन्तु, वर्तमान समय में झड़-बादल के दिन गाय-बछड़ों के उपयोग में आने के सिवाय, और किसी काम में नहीं आता था। ये वृद्ध सज्जन स्टेशन से एक बंगाली युवक को बुला लाए। मैं उसी की दया से, कई एक कुलियों की सहायता से, उस शेड के नीचे लाया गया।

मेरा बड़ा दुर्भाग्य है कि मैं उस युवक का कोई परिचय नहीं दे सकता, क्योंकि, मैं उस समय उसकी कुछ भी पूछताछ नहीं कर सका था। पाँच-छ: महीने बाद, पूछने का जब सुयोग और शक्ति मिली तब, मालूम हुआ कि शीतला के रोग से पीड़ित होकर इस बीच में ही वह इस लोक से कूच कर गया है। उसके सम्बन्ध में पूछने पर इतना ही मालूम हो सका कि वह पूर्वीय बंगाल का था और पन्द्रह रुपये महीने वेतन पर स्टेशन में नौकरी करता था। कुछ देर ठहरकर अपना सैकड़ों जगह से फटा हुआ बिछौना लाकर उसने हाजिर किया और वह बार-बार कहने लगा कि मैं अपने हाथ से पकाकर खाता हूँ और दूसरे के घर रहता हूँ। दोपहर के समय एक कटोरा गरम दूध लाकर उसने जबरन पिलाकर कहा, “डरने की बात नहीं है, आप अच्छे हो जाँयगे। परन्तु आत्मीय बन्धु-बान्धव आदि किसी को भी यदि खबर देनी हो तो, ठिकाना बताने पर, मैं तार दे सकता हूँ।”

उस समय मैं खूब होश में था। इसलिए यह भी अच्छी तरह समझा था कि ऐसी अवस्था बहुत देर तक नहीं रहेगी। इस तरह का ज्वर यदि और भी 5-6 घण्टे स्थायी बना रहा तो होश अवश्य गँवाना पड़ेगा। अतएव, जो कुछ करना है, वह इतने समय के भीतर न करने पर, फिर नहीं किया जायेगा।

सो तो ठीक, परन्तु खबर देने के प्रस्ताव पर मैं सोच-विचार में पड़ गया। क्यों, सो खोलकर बताने की जरूरत नहीं। परन्तु सोचा, गरीब का पैसा टेलीग्राम में अपव्यय करने से लाभ ही क्या है?

शाम के बाद वह भद्र पुरुष अपनी डयूटी से अवकाश लेकर एक घड़ा पानी और एक किरासिन की डिब्बी लेकर उपस्थित हुआ, उस समय ज्वर की यन्त्रणा से मस्तक क्रमश: बिगड़ रहा था। उसे पास में बुलाकर मैंने कहा, “जब तक मुझे होश है तब तक बीच-बीच में आकर देख जाना; इसके बाद जो होना हो सो हो, आप और कोई कष्ट न करना।”

वह अत्यन्त मुँह-चोर प्रकृति का भद्र पुरुष था। बात बनाकर कहने की उसमें क्षमता नहीं थी। जवाब में केवल 'नहीं' कहकर ही वह चुप हो रहा। मैंने कहा, “आपने चाहा था कि किसी को खबर करा दूँ। मैं सन्यासी आदमी हूँ, वास्तव में मेरा कोई भी नहीं। फिर भी पटने में प्यारी बाई के ठिकाने पर यदि एक पोस्ट कार्ड लिख दोगे कि श्रीकान्त आरा स्टेशन के बाहर एक टीनशेड के नीचे मरणापन्न होकर पड़ा है तो...”

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